स्थानीय शासन (Political Science Class 11 Notes): लोकतंत्र का सार केवल चुनावी प्रक्रिया में नहीं है; यह सार्थक भागीदारी और जवाबदेही के सिद्धांत पर आधारित है। एक जीवंत लोकतंत्र वह है जिसमें नागरिक अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अपने विचार और समस्याएँ व्यक्त कर सकें। स्थानीय शासन इस दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि यह नागरिकों को उनके निकटतम स्तर पर निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करता है। जब स्थानीय प्रशासन मजबूत होता है, तब नागरिकों की समस्याओं का समाधान तेजी से और प्रभावी तरीके से किया जा सकता है।
Textbook | NCERT |
---|---|
Class | Class 11 Notes |
Subject | Political Science |
Chapter | Chapter 8 |
Chapter Name | स्थानीय शासन |
Category | कक्षा 10 Political Science नोट्स |
Join our WhatsApp & Telegram channel to get instant updates | Join WhatsApp |
Join Telegram | |
Website | Jharkhand Exam Prep |
स्थानीय शासन
स्थानीय शासन का तात्पर्य गांवों और जिलों के स्तर पर सरकारी संरचना से है। यह आम जनता का सबसे निकटतम शासन है, जहाँ नागरिकों के दैनिक मुद्दों को प्राथमिकता दी जाती है। स्थानीय शासन से जुड़े निर्णय आमतौर पर स्थानीय प्रतिनिधियों द्वारा किए जाते हैं, जो सीधे नागरिकों से जुड़े होते हैं। इस प्रकार, स्थानीय शासन नागरिकों के जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है।
स्थानीय शासन का महत्व
स्थानीय शासन का महत्व कई पहलुओं से जुड़ा हुआ है:
- समुदाय की भागीदारी: जब नागरिक अपने समुदाय के विकास में भाग लेते हैं, तो वे अपनी समस्याओं के समाधान के प्रति अधिक जागरूक और जिम्मेदार बनते हैं।
- समस्याओं का त्वरित समाधान: स्थानीय शासन से समस्याओं का समाधान जल्दी होता है क्योंकि यह निकटता के कारण अधिक प्रभावी होता है।
- आर्थिक दक्षता: स्थानीय शासन की आर्थिक प्रक्रियाएं आमतौर पर अधिक कुशल होती हैं, क्योंकि यह प्रशासनिक लागत को कम करने में मदद करती हैं।
भारत में स्थानीय शासन का विकास
प्राचीन भारत में “सभा” के रूप में स्वशासित समुदायों का अस्तित्व था। यह व्यवस्था न केवल स्थानीय निर्णय लेने में मदद करती थी, बल्कि समुदाय की सामूहिक जिम्मेदारी को भी बढ़ावा देती थी। आधुनिक युग में, स्थानीय शासन का विकास ब्रिटिश राज के दौरान शुरू हुआ। 1882 में “मुकामी बोर्ड” का गठन किया गया, जिससे स्थानीय निकायों की शुरुआत हुई।
1919 के भारत सरकार अधिनियम के तहत ग्राम पंचायतों की स्थापना की गई, जो स्थानीय स्वशासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। भारतीय संविधान के निर्माण के बाद, स्थानीय शासन का विषय राज्यों को सौंपा गया। संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में स्थानीय शासन के महत्व का उल्लेख किया गया है।
स्वतंत्र भारत में स्थानीय शासन
स्वतंत्रता के बाद, भारत ने स्थानीय शासन को मजबूत बनाने के लिए कई कदम उठाए। 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन ने स्थानीय शासन को संवैधानिक रूप प्रदान किया। 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम ने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास किया। इसके तहत त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की गई।
1987 में स्थानीय शासन संस्थाओं का गहन पुनरावलोकन किया गया, जिसके बाद पी.के. डुंगन समिति ने 1989 में स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा देने की सिफारिश की। यह सभी कदम स्थानीय शासन को सशक्त बनाने की दिशा में उठाए गए महत्वपूर्ण कदम थे।
स्थानीय शासन की आवश्यकता
स्थानीय शासन की आवश्यकता लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह निम्नलिखित कारणों से आवश्यक है:
- लोकतंत्र में भागीदारी: स्थानीय शासन अधिकतम भागीदारी सुनिश्चित करता है, जिससे लोग अपनी आवाज़ को व्यक्त कर सकें।
- स्थानीय समस्याओं का समाधान: नागरिकों की अधिकांश समस्याएं स्थानीय स्तर पर होती हैं, जिन्हें स्थानीय स्तर पर ही प्रभावी ढंग से सुलझाया जा सकता है।
- शक्तियों का बंटवारा: अच्छे लोकतंत्र में शक्तियों का बंटवारा आवश्यक है, ताकि कोई भी एकल संस्था या व्यक्ति अत्यधिक शक्तिशाली न हो सके।
संविधान का 73 वां और 74 वां संशोधन
1992 में संसद ने 73 वां और 74 वां संविधान संशोधन पारित किया। 73 वां संशोधन ग्राम स्तर के स्थानीय शासन से संबंधित है, जबकि 74 वां संशोधन शहरी स्थानीय शासन से संबंधित है। ये संशोधन स्थानीय निकायों को संवैधानिक मान्यता देने के लिए महत्वपूर्ण थे।
73 वां संशोधन
73 वें संविधान संशोधन के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं:
- त्रि-स्तरीय ढांचा: सभी राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था का त्रि-स्तरीय ढांचा स्थापित किया गया है, जिसमें ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला पंचायत शामिल हैं।
- चुनाव: पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तरों के चुनाव सीधे जनता द्वारा किए जाते हैं। प्रत्येक निकाय का कार्यकाल 5 वर्ष होता है।
- आरक्षण: महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं, साथ ही अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान है।
इस आरक्षण के कारण महिलाएं भी सक्रिय रूप से राजनीति में भाग ले सकी हैं, जो लोकतंत्र में उनकी भागीदारी को बढ़ावा देता है।
74 वां संशोधन
74 वां संविधान संशोधन शहरी स्थानीय शासन से संबंधित है, विशेषकर नगर निगमों और नगरपालिकाओं के लिए। इसके कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान निम्नलिखित हैं:
- सामान्य परिषद: प्रत्येक नगर निगम में सभी व्यस्क मतदाताओं द्वारा चुनी गई एक सामान्य परिषद होती है, जिसे पार्षद या काउंसिलर कहा जाता है।
- महापौर का चुनाव: चुने गए सदस्यों द्वारा नगर निगम का अध्यक्ष चुना जाता है, जिसे महापौर कहा जाता है।
- कार्यकाल: नगर निगम, नगरपालिका या नगर पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष होता है।
अगर किसी नगर निगम या नगरपालिका का कार्यकाल समाप्त होता है, तो उसे 6 महीने के भीतर नए चुनाव कराने होते हैं।
राज्य चुनाव आयुक्त
प्रत्येक राज्य के लिए आवश्यक है कि वे एक राज्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करें, जिसकी जिम्मेदारी पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने की होती है। यह आयुक्त सुनिश्चित करता है कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से हों।
राज्य वित्त आयोग
हर पांच वर्ष पर एक प्रादेशिक वित्त आयोग का गठन अनिवार्य है। यह आयोग स्थानीय निकायों की आर्थिक स्थिति का आकलन करता है और वित्तीय सहायता के लिए सिफारिशें करता है। यह स्थानीय निकायों के लिए वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
शहरी इलाका
शहरी क्षेत्र की परिभाषा में कम से कम 5000 की जनसंख्या होनी चाहिए। इसके अलावा, कामकाजी पुरुषों में से 75% को खेती-बाड़ी से अलग काम करना चाहिए, और जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर होना चाहिए।
73 वें और 74 वें संशोधन का क्रियान्वयन
1994 से 2016 के बीच, स्थानीय निकायों के चुनाव कम से कम 4 से 5 बार आयोजित किए गए हैं। इससे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की संख्या में वृद्धि हुई है, और महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ा है। ये सभी विकास लोकतंत्र को और भी मजबूत बनाते हैं।
विषयों का स्थानांतरण
संविधान के संशोधन ने 29 विषयों को स्थानीय शासन के हवाले किया है। ये सभी विषय स्थानीय विकास और कल्याण से संबंधित हैं। इनमें शामिल हैं: सड़कें, ग्रामीण विकास, लघु उद्योग, सिंचाई, बाजार एवं मेला, ग्रामीण विद्युतीकरण, कृषि, शिक्षा, और पेयजल।
स्थानीय शासन के समक्ष समस्याएं
स्थानीय शासन के सामने कई चुनौतियां हैं, जो इसे प्रभावी बनाने में बाधा डालती हैं:
- धन का अभाव: स्थानीय निकायों के पास पर्याप्त धन की कमी होती है, जो उनके कार्यों में बाधा डालती है।
- वित्तीय मदद पर निर्भरता: स्थानीय निकायों को वित्तीय मदद के लिए केंद्र और राज्य सरकारों पर निर्भर रहना पड़ता है।
- आय से अधिक खर्च: कई बार स्थानीय निकायों का खर्च उनकी आय से अधिक होता है, जिससे वित्तीय संकट उत्पन्न होता है।
- जनता का जागरूक न होना: नागरिकों में स्थानीय शासन के प्रति जागरूकता की कमी होती है, जिससे वे अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति अनजान रहते हैं।
निष्कर्ष
स्थानीय शासन लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह नागरिकों को उनके स्थानीय मुद्दों पर निर्णय लेने का अवसर देता है और उन्हें अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन में भागीदारी करने का मौका प्रदान करता है। संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन ने स्थानीय शासन को एक मजबूत आधार दिया है, जिससे लोकतंत्र की नींव और भी मजबूत हुई है। स्थानीय शासन की चुनौतियों का सामना करना और इसे सशक्त बनाना सभी नागरिकों की जिम्मेदारी है, ताकि लोकतंत्र का यह स्तर प्रभावी और उत्तरदायी बना रहे।
स्थानीय शासन का सही ढंग से कार्यान्वयन लोकतंत्र की स्वास्थ्य और स्थिरता के लिए आवश्यक है। यह न केवल नागरिकों को अपनी समस्याओं का समाधान करने का अधिकार देता है, बल्कि उन्हें अपने समुदाय के विकास में भी सक्रिय
भागीदारी के लिए प्रेरित करता है। स्थानीय शासन के माध्यम से हम एक सशक्त और समृद्ध समाज की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
इस प्रकार, स्थानीय शासन को सशक्त बनाना, नागरिकों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना, और स्थानीय समस्याओं का प्रभावी समाधान करना सभी का कर्तव्य है। यह लोकतंत्र के लिए एक मजबूत नींव रखता है और हमारे समाज को और अधिक प्रगतिशील बनाता है।