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जाति, धर्म और लैंगिक मसले: JAC Class 10 Civics Chapter 4 Notes

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जाति, धर्म और लैंगिक मसले (JAC Class 10 Civics Notes): इस अध्याय में हम जाति, धर्म और लैंगिक मुद्दों पर चर्चा करेंगे। ये मुद्दे हमारे समाज की संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस पाठ में हम श्रम के लैंगिक विभाजन, नारीवादी आंदोलनों, पितृ प्रधान समाज, महिलाओं का दमन, पारिवारिक कानून, साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, और जातिवाद की राजनीति के पहलुओं का विश्लेषण करेंगे। ये सभी विषय हमारे लोकतंत्र में समाहित होते हैं और इनका गहरा प्रभाव हमारे सामाजिक ताने-बाने पर पड़ता है।

TextbookNCERT
ClassClass 10 Notes
SubjectCivics
ChapterChapter 4
Chapter Nameजाति, धर्म और लैंगिक मसले
Categoryकक्षा 10 Civics नोट्स
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WebsiteJharkhand Exam Prep
जाति, धर्म और लैंगिक मसले: JAC Class 10 Civics Chapter 4 Notes

श्रम का लैंगिक विभाजन

परिभाषा और प्रभाव

श्रम का लैंगिक विभाजन उस प्रक्रिया को दर्शाता है जिसमें काम को लिंग के आधार पर विभाजित किया जाता है। इस विभाजन का नतीजा यह होता है कि महिलाओं और पुरुषों के कार्य क्षेत्र अलग-अलग होते हैं। सामान्यत: घर के अंदर के काम जैसे खाना बनाना, बच्चों की देखभाल, और अन्य घरेलू कार्य महिलाओं द्वारा किए जाते हैं। वहीं, पुरुष बाहरी कार्यों जैसे व्यवसाय, निर्माण, और अन्य सार्वजनिक कार्यों में संलग्न होते हैं।

उदाहरण

  • महिलाओं की भूमिका: घर की सफाई, भोजन तैयार करना, और बच्चों की देखभाल मुख्यत: महिलाओं का कार्य है।
  • पुरुषों की भूमिका: आमतौर पर पुरुषों को रोजगार के लिए बाहर जाने और आर्थिक जिम्मेदारियों को संभालने का कार्य सौंपा जाता है।

इस प्रकार का विभाजन महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में अपनी उपस्थिति कम करने और उन्हें घर के अंदर सीमित रखने का कारण बनता है।

नारीवादी आंदोलन

नारीवादी की परिभाषा

नारीवाद एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन है जो महिलाओं के अधिकारों और उनके साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ संघर्ष करता है। यह न केवल महिलाओं के लिए समान अधिकारों की मांग करता है, बल्कि उनके सशक्तिकरण के लिए भी काम करता है।

नारीवादी आंदोलन का विकास

नारीवादी आंदोलन 19वीं शताब्दी में उभरा, जब महिलाओं ने शिक्षा, मतदान अधिकार, और रोजगार के अवसरों के लिए आवाज उठाई। यह आंदोलन धीरे-धीरे विभिन्न रूपों में विकसित हुआ और समाज में महिलाओं की स्थिति को सुधारने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया।

नारीवादी आंदोलन की विशेषताएँ

  • राजनैतिक अधिकारों का समर्थन: यह आंदोलन महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों और सत्ता में उनकी भागीदारी की वकालत करता है।
  • पितृसत्तात्मक ढांचे का विरोध: यह नारीवाद पितृसत्तात्मक परिवार के ढाँचे के खिलाफ है और महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करता है।
  • शिक्षा और रोजगार: यह महिलाओं की शिक्षा और विभिन्न क्षेत्रों में उनके व्यवसाय की वकालत करता है।

पितृ प्रधान समाज

परिभाषा

पितृ प्रधान समाज वह सामाजिक ढांचा है जहाँ पुरुषों को परिवार का मुखिया माना जाता है और उन्हें महिलाओं की तुलना में अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं। इस प्रकार का समाज महिलाओं को कमज़ोर और निर्भर बनाता है।

प्रभाव

पितृ प्रधान समाज के कारण महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक रूप से उपेक्षित किया जाता है। इससे उनकी आत्मनिर्भरता कम होती है और वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने में असमर्थ रहती हैं।

महिलाओं का दमन

साक्षरता की दर

भारत में महिलाओं की साक्षरता दर केवल 54% है, जबकि पुरुषों की साक्षरता दर 76% है। इस प्रकार का भेदभाव महिलाओं को शिक्षा और रोजगार के अवसरों से वंचित रखता है।

सामाजिक और घरेलू उत्पीड़न

महिलाओं को घरेलू और सामाजिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। उन्हें अक्सर पुरुषों के अधीन रहने के लिए मजबूर किया जाता है, जिससे उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रभावित होती है।

आर्थिक आत्मनिर्भरता

महिलाएँ पुरुषों की तुलना में आर्थिक रूप से कम आत्मनिर्भर होती हैं। यह स्थिति उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता की कमी और समाज में उनकी कम भागीदारी का परिणाम है।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व

स्थिति

भारत में महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बहुत कम है। उदाहरण के लिए, 2019 में लोकसभा में महिलाओं की संख्या 14.36% तक पहुँच पाई। इस स्थिति के सुधार के लिए कई कदम उठाने की आवश्यकता है।

सुधार के उपाय

  • आरक्षण: विधायिका में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण कानूनी रूप से अनिवार्य होना चाहिए।
  • पंचायती राज: कुछ राज्यों में पंचायतों में महिलाओं के लिए 50% सीटें आरक्षित हैं, जैसे बिहार और मध्य प्रदेश।

भारत सरकार के कदम

भारत सरकार ने नारी असमानता को दूर करने के लिए कई कदम उठाए हैं, जैसे:

  • दहेज के खिलाफ कानून: दहेज को अवैध घोषित किया गया है।
  • समानता के कानून: पारिवारिक संपत्तियों में महिलाओं को समान अधिकार दिए गए हैं।
  • कन्या भ्रूण हत्या: इसे कानूनन अपराध घोषित किया गया है।

धर्म और राजनीति

महात्मा गांधी ने कहा था कि धर्म और राजनीति को अलग नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार, धर्म नैतिक मूल्यों का स्रोत है जो राजनीति को दिशा प्रदान करता है।

धर्मनिरपेक्षता

धर्मनिरपेक्षता वह व्यवस्था है जिसमें राज्य का कोई विशेष धर्म नहीं होता। सभी धर्मों को समान महत्व दिया जाता है और नागरिकों को किसी भी धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता होती है।

भारतीय संविधान के प्रावधान

  • धर्म की स्वतंत्रता: भारत का संविधान किसी भी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।
  • धार्मिक भेदभाव: धर्म के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव को अवैध घोषित किया गया है।

जातिवाद

जातिवाद का अर्थ है जाति के आधार पर भेदभाव करना। यह सामाजिक ताने-बाने में असमानता को बढ़ावा देता है।

वर्ण व्यवस्था

वर्ण व्यवस्था विभिन्न जातीय समूहों के बीच पदानुक्रम को दर्शाती है। यह व्यवस्था समाज में उच्च और निम्न जातियों के बीच भेदभाव उत्पन्न करती है।

आधुनिक भारत में जाति और वर्ण व्यवस्था के परिवर्तन

आर्थिक विकास, शहरीकरण, और शिक्षा में वृद्धि ने जाति व्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव लाने में मदद की है। आजकल, जातियों के बीच संबंध अधिक जटिल हो गए हैं।

राजनीति में जाति

जातिगत समीकरण

राजनीति में जाति के आधार पर मतदाताओं की पहचान और समर्थन प्राप्त करने के लिए राजनीतिक दल जातिगत भावनाओं का उपयोग करते हैं। इससे जातिगत विभाजन को बढ़ावा मिलता है।

नकारात्मक परिणाम

जाति पर ध्यान केंद्रित करने से अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे गरीबी और विकास से ध्यान भटक सकता है। इससे सामाजिक तनाव, संघर्ष और हिंसा भी हो सकती है।

जातिगत असमानता

जाति के आधार पर आर्थिक विषमता अभी भी देखने को मिलती है। उच्च जातियाँ सामान्यत: संपन्न होती हैं, जबकि निम्न जातियाँ गरीबी रेखा के नीचे रहती हैं।

अनुसूचित जातियाँ

अनुसूचित जातियाँ वे जातियाँ हैं जिन्हें हिंदू सामाजिक व्यवस्था में उच्च जातियों से अलग और अछूत माना जाता है। इन जातियों का अपेक्षित विकास नहीं हुआ है।

अनुसूचित जनजातियाँ

अनुसूचित जनजातियाँ ऐसे समुदाय हैं जो आमतौर पर पहाड़ी और जंगली क्षेत्रों में निवास करते हैं और जिनका बाकी समाज से अधिक मेलजोल नहीं होता।

निष्कर्ष

इस अध्याय में हमने जाति, धर्म, और लैंगिक मसलों के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया। यह आवश्यक है कि हम समाज में समानता, सहिष्णुता, और एकता को बढ़ावा दें ताकि सभी वर्गों और समुदायों के अधिकारों का सम्मान किया जा सके। एक स्वस्थ और समृद्ध समाज के लिए यह आवश्यक है कि हम इन मुद्दों पर गंभीरता से विचार करें और सकारात्मक बदलाव के लिए प्रयास करें।

इन सभी विषयों पर चर्चा करते हुए हमें यह समझना चाहिए कि समाज में समानता और समान अवसर प्रदान करना न केवल एक नैतिक कर्तव्य है, बल्कि यह हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की मजबूती के लिए भी आवश्यक है। हमें अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए समाज में व्याप्त असमानताओं को समाप्त करने के लिए काम करना चाहिए।

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