आइझ एकाइ खोरठा कविता (लेखक – श्री ए. के. झा) – एक पथिया डोंगल महुवा खोरठा कविता
अर्थ :
इस कविता के द्वारा ऐ.के.झा यह बताना चाहते हैं कि एउन्होंने झारखंड के सदानी भाषणों को एकत्रित कर उनके विकास को बढ़ावा देने के लिए उस क्षेत्र से संबंधित कई सारे बुद्धिजीवियों और विद्वानों को एकत्रित करने का प्रयास किया। लेकिन यह सब कुछ असफल रहा। इसके बाद वे अकेले ही खोरठा के विकास के लिए कूद पड़े।
वे कहते हैं कि खोरठा बोलने वालों का क्षेत्र बहुत ज्यादा विस्तृत है, फैला हुआ है। इसके बावजूद खोरठा भाषा क्यों विकसित नहीं हुआ है ? खोरठा भाषा साहित्य के इतिहास का वर्णन करते हुए वे कई महत्वपूर्ण खोरठा व्यक्तियों की चर्चा करते हैं उनके संघर्ष और योगदान का भी उल्लेख करते हैं।
वे खोरठा साहित्य की इतिहास की शुरुआत भुनेश्वर दत्त शर्मा व्याकुल से मानते हैं आगे श्रीनिवास पनुरीजी जी के योगदान की भी वे चर्चा करते हैं। साथ ही तीतकी पत्रिका का उल्लेख करते हैं।
कविता के माध्यम से झा जी कहते हैं कि किस तरह से खोरठा भाषा को पढ़ने वाले इच्छुक छात्रों को जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग रांची विश्वविद्यालय के पदाधिकारियों के द्वारा भ्रमित किया जाता था। झा जी के प्रयास से उनका नामांकन खोरठा भाषा में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग रांची विश्वविद्यालय में संपन्न हो पाया था। कविता में राहुल सांकृत्यायन के साथ श्रीनिवास जी की चिट्ठी पत्री का भी उल्लेख किया गया है। राहुल सांकृत्यायन कवि पानुरीजी को सलाह देते हैं कि सरकार का चापलूसी करने वाला कवि कभी मत बनो.
आगुक सभे कबिते ,सभे गइदें – गीतें
गोटे सदानिक दोहाइ देलिओ
एकताक सुर बोहाइ देलियो ।
मुदा आइझ एकाइ खोरठाक
भेंट दहिअइ ई कविता टाक!
काहे ना एते बोड खोरठा छेतर
तवो एकर नाँद्र बाढेक बतर
लाख-लाघ मु-s रहइथु काका
बड – -बोड़ बुजरुक बिआइ के बोका
आकाशवाणी गीत नां,इ पढेक राँची थित नांइ ?
कखनो बोका लोके ठकि देलइ
काहां, एम. ए. में खोरठा काहां ?
बस ठेकइन तथि आइ-बाइ
अइला गीदर घर पाराइ!
चाइरो बाटे भेल गोहाइर, सुने परलक हमरो गाइर
केउ -केउ कहला
“चेगा क्लासें खोरठे नांइ
बोका घँखे एम. ए. क पढ़ाई।”
छोट बातेक बोड बनल बात
फेचाँगे – फेचाग के बरियात ।
मेंनेक आयाँ बात ?
आयाँ बतवो तो हलइ निठा
लिखलोहो हलय काटल खोरठा
आगु तो पतियार करलो नॉइ
पर, कइ गो छउवें देखउला गाइ
एहे सब में कइ बछरें
गनल – गुथल गीदर सब
करवे पारला एडमिसन
पढल्हूँ पढ़ला जइसने – तइसन !
जे होवोक बिहिन तो बुनाइल हइ
जदियो टोपरे में, ढाकी नखइ ।
मेंनेक बात कि एतने हइ ?
नॉ नॉइ, आरो देइरे टनतइ
आगुवे ि बहीन बनल हला
व्याकुल जी व्याकुल भेल हला
आर पानुरी जी “तितकी” बराइ के
छठवा – पूता के रगवल हल
कहे पारा, रागला काहे ?
तो छोडिवा पुते कहलथिन
ठुनकी-ठुनकी पानुरीजी ठिन
खोरठा के खिआइ – खिआइ के
हामनिक तो खिआइ देलें
भात लुगाक भारी अभावें
भुसे पटपटाइ टउआइ देखे
पानुरीजी हाहनिसार
तभु किछोडला से डहर
तखन उनखा जोर देलथी
जुगतीतवा विदुवान राहुलजी ! कहलथि
हाइनि सारेक डाँडी परिहा नॉइ
आर कवि सरकारी रनिहा नाँइ ।
महजूत हइ ले डुबेक चिठियो ?
जकरा देखे पारा तोहनियो
तितिन ठिने छापाइ देल हियो
फइर प्राड प्राड सइए बेरें ?
चल हला एहे डहरवे
सदियो सनी कमे कमें
कहाइ जादव गोलवार जी
तिजू महतो रनवीर आदि