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झारखंड राज्य का पारंपरिक नृत्य – छऊ, पाईका, हो नृत्य इत्यादि

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झारखंड का पारंपरिक नृत्य इस भारतीय राज्य की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इन नृत्यों में झारखंड के विभिन्न आदिवासी समुदायों की लोक कलाओं की झलक मिलती है। राज्य में संथाल, मुंडा, उरांव, और हो जैसे कई आदिवासी समूह निवास करते हैं, और उनके नृत्य इनकी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं।

झारखंड के पारंपरिक नृत्यों का प्रदर्शन मुख्यतः विभिन्न उत्सवों, धार्मिक समारोहों, और सामाजिक आयोजनों के दौरान किया जाता है। ये नृत्य न केवल मनोरंजन का माध्यम होते हैं, बल्कि सामुदायिक एकता और सांस्कृतिक पहचान को भी प्रकट करते हैं। विभिन्न अवसरों पर प्रस्तुत किए जाने वाले इन नृत्यों में सामूहिकता का महत्व होता है, जिससे समुदाय के लोग एकजुट होकर अपनी सांस्कृतिक धरोहर का सम्मान करते हैं।

झारखंड राज्य की संस्कृति

इन पारंपरिक नृत्यों के माध्यम से झारखंड के लोग अपनी जीवन शैली, प्रकृति के प्रति सम्मान, और सामाजिक मान्यताओं को भी प्रकट करते हैं। उदाहरण के लिए, करमा नृत्य कृषि के मौसम की शुरुआत और प्रकृति की पूजा के अवसर पर किया जाता है। इस नृत्य में लोग वृक्षों की पूजा करते हैं और गीत-नृत्य के माध्यम से अपनी खुशियों का इजहार करते हैं। इसी प्रकार, सोहराई नृत्य फसल कटाई के समय किया जाता है और इसमें समृद्धि और खुशहाली की कामना की जाती है।

झारखंड के पारंपरिक नृत्य न केवल राज्य की सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करते हैं, बल्कि बाहरी दुनिया के सामने भी उनकी अनूठी सांस्कृतिक विविधता को प्रस्तुत करते हैं। इन नृत्यों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कृति और परंपराओं को संजोया जाता है, जिससे उनकी प्रासंगिकता और महत्व हमेशा बरकरार रहता है।

झारखंड का पारंपरिक नृत्य विविधता और समृद्ध संस्कृति का प्रतीक है, जिसमें से संताल नृत्य एक प्रमुख स्थान रखता है। संताल जनजाति का यह नृत्य न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि यह उनकी सांस्कृतिक धरोहर और सामूहिक पहचान का भी अभिन्न हिस्सा है।

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संताल नृत्य का इतिहास बहुत पुराना है और यह जनजाति की धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ा हुआ है। इस नृत्य का प्रदर्शन आमतौर पर विशेष अवसरों, त्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान किया जाता है। यह नृत्य समूह में किया जाता है, जिसमें पुरुष और महिलाएं एक गोलाकार घेरे में नृत्य करते हैं। नर्तक अपने पारंपरिक परिधानों में सज-धज कर आते हैं, जो उनके सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक होते हैं।

झारखंड राज्य का पारंपरिक नृत्य - छऊ, पाईका, हो नृत्य इत्यादि

संताल नृत्य की प्रमुख विशेषता इसकी तालबद्धता और ऊर्जा है। नर्तक ताल के साथ कदमताल मिलाते हुए एक लयबद्ध धुन पर नृत्य करते हैं। इस दौरान ढोल, मांदल और नगाड़े जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों का उपयोग किया जाता है, जो नृत्य को और भी जीवंत बनाते हैं। नृत्य के दौरान नर्तकों के चेहरे पर खुशी और उत्साह साफ झलकता है, जो दर्शकों को भी मंत्रमुग्ध कर देता है।

झारखंड का पारंपरिक नृत्य, विशेषकर संताल नृत्य, का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व अत्यधिक है। यह नृत्य न केवल संताल जनजाति के लोगों के बीच एकता और सामूहिकता को बढ़ावा देता है, बल्कि उनके इतिहास और परंपराओं को संजोने का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम है। संताल नृत्य के माध्यम से नई पीढ़ी को उनके सांस्कृतिक मूल्यों और धरोहरों से परिचित कराया जाता है।

इस प्रकार, संताल नृत्य झारखंड की सांस्कृतिक धरोहर का एक अनमोल हिस्सा है, जो अपनी विशेषताओं और महत्व के कारण सदियों से जनजाति के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

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झारखंड का पारंपरिक नृत्य

झारखंड का पारंपरिक नृत्य, छऊ नृत्य, अपनी विशिष्टताओं और सांस्कृतिक धरोहर के लिए प्रसिद्ध है। यह नृत्य शैली मुख्य रूप से तीन प्रकारों में विभाजित है: सरायकेला, मयूरभंज और पुरुलिया। प्रत्येक प्रकार की अपनी विशेषताएं और प्रदर्शन शैली होती हैं, जो इसे अद्वितीय बनाती हैं।

छऊ नृत्य

सरायकेला छऊ नृत्य में मुखौटों का उपयोग होता है और यह नृत्यकला अपनी शास्त्रीय शैली के लिए जानी जाती है। दूसरी ओर, मयूरभंज छऊ में मुखौटों का उपयोग नहीं होता, बल्कि यह नृत्यकला अपनी लयबद्धता और गतिशीलता के लिए प्रसिद्ध है। पुरुलिया छऊ नृत्य में मुखौटों के साथ-साथ अद्वितीय नाटकीय शैली का समावेश होता है, जो इसे आकर्षक और रंगीन बनाता है।

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छऊ नृत्य की प्रदर्शन शैली अत्यंत विशिष्ट होती है, जो नर्तकों की शारीरिक शक्ति और लयबद्धता पर निर्भर करती है। नर्तक मुखौटे पहनकर पौराणिक कथाओं और लोक कथाओं को मंच पर जीवंत करते हैं। नृत्य के माध्यम से महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों की कथाओं को प्रस्तुत किया जाता है, जिससे दर्शकों को एक अद्वितीय सांस्कृतिक अनुभव मिलता है।

इसके अतिरिक्त, छऊ नृत्य में युद्ध और वीरता के दृश्यों का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है। नर्तक तलवारों और ढालों का उपयोग करते हुए युद्ध के दृश्यों का प्रदर्शन करते हैं, जो नृत्य को और भी रोमांचक बनाते हैं। झारखंड का पारंपरिक नृत्य, छऊ नृत्य, न केवल एक कला रूप है, बल्कि यह झारखंड की सांस्कृतिक धरोहर और पारंपरिक मान्यताओं का प्रतीक भी है।

पाईका नृत्य

झारखंड का पारंपरिक नृत्य, पाईका नृत्य, राज्य की सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस नृत्य का उद्भव प्राचीन काल में हुआ था और यह मुख्य रूप से झारखंड के आदिवासी समुदायों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। पाईका नृत्य का नाम ‘पाईका’ से लिया गया है, जो परंपरागत योद्धाओं या सैनिकों को संदर्भित करता है। यह नृत्य एक योद्धा की जीवंतता और वीरता को दर्शाता है, जिसमें युद्ध के समय के शौर्य और साहस का चित्रण होता है।

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पाईका नृत्य का प्रदर्शन अत्यंत ही जीवंत और ऊर्जावान होता है। नर्तक पारंपरिक वेशभूषा में सज-धज कर, तलवार और ढाल जैसे हथियारों का उपयोग करते हुए युद्ध के विभिन्न आसनों और चालों का प्रदर्शन करते हैं। यह नृत्य समूह में किया जाता है, और इसमें ताले और ढोल जैसे वाद्य यंत्रों का प्रमुखता से उपयोग होता है। नर्तकों के कदमों और उनकी चालों का तालमेल वाद्य यंत्रों की धुन के साथ होता है, जो इस नृत्य को और भी अधिक आकर्षक बनाता है।

पाईका नृत्य का समाज और संस्कृति में विशेष महत्व है। यह नृत्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह समुदाय के वीरता, शक्ति और एकता के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है। त्योहारों, समारोहों और विशेष अवसरों पर इस नृत्य को प्रदर्शित किया जाता है, जो समुदाय के लोगों को एकजुट करता है और उनकी सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करता है। पाईका नृत्य के माध्यम से युवा पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक धरोहर से परिचित कराने का प्रयास भी किया जाता है।

इस प्रकार, पाईका नृत्य झारखंड के पारंपरिक नृत्य के रूप में राज्य की सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

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झुमर नृत्य

झारखंड का पारंपरिक नृत्य, झुमर नृत्य, राज्य की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह नृत्य मुख्यतः खेती-बाड़ी के मौसम में और पर्व-त्योहारों के समय किया जाता है। झुमर नृत्य का प्रमुख उद्देश्य सामूहिकता और सामुदायिक एकता को प्रकट करना है। इसमें नर्तक और नर्तकियां एक घेरा बनाकर ताल और लय के साथ नृत्य करते हैं।

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झुमर नृत्य के विभिन्न प्रकार होते हैं, जिनमें प्रमुख रूप से ‘पुरुलिया झुमर’, ‘संताल झुमर’ और ‘कर्मा झुमर’ शामिल हैं। पुरुलिया झुमर पश्चिम बंगाल और झारखंड के सीमावर्ती क्षेत्रों में लोकप्रिय है, जबकि संताल झुमर संताल जनजाति के लोगों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। कर्मा झुमर, जिसे कर्मा पर्व के दौरान प्रस्तुत किया जाता है, कृषि से संबंधित अनुष्ठानों का एक अभिन्न अंग है।

झुमर नृत्य के प्रदर्शन की विधि में नर्तक-नर्तकियां रंग-बिरंगे परिधान पहनते हैं और पारंपरिक वाद्ययंत्रों जैसे ढोल, नगाड़ा, मंजीरा और शहनाई का प्रयोग किया जाता है। झारखंड का पारंपरिक नृत्य झुमर न केवल देखने में आकर्षक होता है, बल्कि इसमें छिपा संदेश भी महत्वपूर्ण होता है। यह नृत्य प्रकृति, जीवन और सामुदायिक सहयोग का प्रतीक है।

इस नृत्य के सांस्कृतिक अर्थ भी गहरे हैं। यह न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि सामाजिक संदेशों को प्रसारित करने का माध्यम भी है। झुमर नृत्य के गीतों में प्रेम, वीरता, सामाजिक न्याय और समृद्धि के संदेश होते हैं। इस प्रकार, झारखंड का पारंपरिक नृत्य, झुमर नृत्य, राज्य की सांस्कृतिक पहचान को सुदृढ़ करता है और विभिन्न समुदायों के बीच एकता और समरसता को बढ़ावा देता है।

हो नृत्य

झारखंड के पारंपरिक नृत्यों में से एक प्रमुख नृत्य है हो नृत्य, जो हो जनजाति का मुख्य सांस्कृतिक प्रतीक है। यह नृत्य न केवल हो जनजाति की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाता है, बल्कि उनकी धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं का भी प्रतीक है। हो नृत्य का इतिहास सदियों पुराना है और यह हो समुदाय की सामाजिक जीवनशैली का अनिवार्य हिस्सा रहा है।

हो नृत्य का प्रदर्शन विशेष अवसरों और त्योहारों पर किया जाता है। यह नृत्य समूह में किया जाता है, जहां पुरुष और महिलाएं एक साथ नृत्य करते हैं। नर्तक पारंपरिक पोशाक पहनते हैं, जिसमें पुरुष धोती और पगड़ी धारण करते हैं, जबकि महिलाएं साड़ी और आभूषणों से सुसज्जित होती हैं। नृत्य के दौरान ढोल, मांदर और नगाड़े जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों का उपयोग किया जाता है, जो नृत्य को और भी जीवंत बनाते हैं।

हो नृत्य की विधि में नर्तक एक गोल दायरे में खड़े होकर एक दूसरे के कंधों पर हाथ रखते हैं और तालबद्ध कदमों के साथ नृत्य करते हैं। इस नृत्य में गति और ताल का विशेष महत्व होता है, जो नृत्य की सुंदरता को बढ़ाता है। नृत्य के दौरान गाए जाने वाले गीत जनजाति की पौराणिक कथाओं, धार्मिक कथा-गाथाओं और दैनिक जीवन के अनुभवों पर आधारित होते हैं।

हो नृत्य का महत्व केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं है; यह जनजातीय एकता और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। यह नृत्य विभिन्न पीढ़ियों के बीच सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण और प्रसार का माध्यम भी है। हो नृत्य के माध्यम से हो जनजाति अपने इतिहास, परंपराओं और सामाजिक मूल्यों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का कार्य करती है।

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झारखंड के नृत्यों का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

झारखंड का पारंपरिक नृत्य न केवल एक कला रूप है, बल्कि यह राज्य की सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी है। इन नृत्यों का प्रमुख उद्देश्य समाज में एकता और सामंजस्य को बढ़ावा देना है। ग्रामीण और आदिवासी समुदायों में, ये नृत्य सामाजिक बंधन को मजबूत करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम होते हैं। समारोहों और त्योहारों के दौरान, इन नृत्यों का आयोजन लोगों को एक साथ लाता है, जिससे समुदाय की भावना को प्रबल किया जाता है।

सांस्कृतिक दृष्टिकोण से, झारखंड के पारंपरिक नृत्य समुदाय की सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विभिन्न जातीय समूहों और जनजातियों के पास अपने विशिष्ट नृत्य रूप होते हैं, जो उनकी सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक होते हैं। ये नृत्य पीढ़ी दर पीढ़ी संजोए जाते हैं और इन्हें सीखना और सिखाना एक पारंपरिक जिम्मेदारी मानी जाती है। इस प्रक्रिया में, युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति और परंपराओं से जुड़ी रहती है और उन्हें आगे बढ़ाने का दायित्व निभाती है।

इसके अलावा, झारखंड के पारंपरिक नृत्य उत्सवों और सामाजिक आयोजनों में आनंद और उल्लास का माहौल बनाते हैं। चाहे वह सरहुल, करमा, मागे या तुसु पर्व हो, इन नृत्यों का आयोजन विशेष धूमधाम से किया जाता है। नृत्य के माध्यम से लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं और सामूहिक उत्सव के माध्यम से खुशी और आनंद का अनुभव करते हैं।

इस प्रकार, झारखंड का पारंपरिक नृत्य सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने का एक अभिन्न हिस्सा है। यह न केवल एक सांस्कृतिक धरोहर है, बल्कि समाज को एकजुट रखने और सांस्कृतिक मूल्यों को संजोए रखने का एक महत्वपूर्ण साधन भी है।

निष्कर्ष

झारखंड का पारंपरिक नृत्य इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण अंश है। इन नृत्यों में न केवल अद्वितीय शारीरिक मुद्राओं और तालों का प्रदर्शन होता है, बल्कि यह झारखंड की लोककथाओं, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक जीवन को भी अभिव्यक्त करते हैं। चाहे वह सरहुल का नृत्य हो, जिसमें प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त किया जाता है, या फिर करमा नृत्य, जो जीवन के महत्वपूर्ण अवसरों और पर्वों को चिन्हित करता है, हर नृत्य अपनी अलग पहचान और महत्व रखता है।

झारखंड के पारंपरिक नृत्यों की विशेषता उनकी जीवंतता और सौंदर्य में निहित है। ये नृत्य उन भावनाओं और विचारों को प्रकट करते हैं जो शब्दों से परे होते हैं। इन नृत्यों के माध्यम से न केवल मनोरंजन होता है, बल्कि यह समुदायों को एकजुट करने और उनकी सांस्कृतिक पहचान को सशक्त करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

आज के युग में, जहां आधुनिकता और वैश्वीकरण के प्रभाव से पारंपरिक कलाओं का अस्तित्व खतरे में है, यह आवश्यक है कि हम झारखंड का पारंपरिक नृत्य जैसे सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करें। इसके लिए आवश्यक है कि हम इन नृत्यों को न केवल प्रोत्साहित करें बल्कि अगली पीढ़ी को भी इस सांस्कृतिक धरोहर से परिचित कराएं।

इस ब्लॉग पोस्ट ने झारखंड के पारंपरिक नृत्यों की विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक महत्व को उजागर करने का प्रयास किया है। आशा है कि पाठक इस समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर की महत्ता को समझेंगे और इसे जीवित रखने के प्रयास में भागीदार बनेंगे।

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