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झारखंड में संथाल, मुंडा और उरांव जनजातियों द्वारा मनाया जाने वाला प्रमुख आदिवासी त्योहार

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झारखंड भारत के पूर्वी हिस्से में स्थित एक महत्वपूर्ण राज्य है, जो अपनी समृद्ध संस्कृति और विविधता के लिए जाना जाता है। इस राज्य की जनजातियाँ विशेष रूप से संथाल, मुंडा और उरांव जनजातियाँ, अपनी अनूठी परंपराओं और रीति-रिवाजों के लिए प्रसिद्ध हैं। झारखंड की जनसंख्या में इन जनजातियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षण और संवर्द्धन करते हैं।

संथाल जनजाति झारखंड की सबसे बड़ी आदिवासी जनजाति है, जो मुख्यतः संथाल परगना क्षेत्र में निवास करती है। इनका जीवनशैली कृषि और पशुपालन पर आधारित है, और ये लोग अपने त्योहारों को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। संथाल जनजाति के प्रमुख त्योहारों में सोहराय और बाहा पर्व प्रमुख हैं, जो उनकी संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

मुंडा जनजाति भी झारखंड की एक प्रमुख आदिवासी जनजाति है, जो मुख्यतः रांची, खूंटी, और लोहरदगा जिलों में पाई जाती है। मुंडा जनजाति अपने विशिष्ट नृत्य और गीतों के लिए जानी जाती है। इनके प्रमुख त्योहारों में सरहुल और करम पर्व शामिल हैं, जो प्रकृति और कृषि से जुड़ी मान्यताओं को दर्शाते हैं।

उरांव जनजाति झारखंड की एक और महत्वपूर्ण आदिवासी जनजाति है, जो मुख्यतः रांची और गुमला जिलों में निवास करती है। उरांव जनजाति भी कृषि पर आधारित जीवनशैली अपनाती है और इनके त्योहारों में करम और सरना प्रमुख हैं। ये त्योहार सामुदायिक एकता और प्राकृतिक संसाधनों के सम्मान को बढ़ावा देते हैं।

इन जनजातियों के त्योहारों का उल्लास और उत्सव झारखंड की सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है, जो राज्य की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को जीवंत बनाए रखता है।

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सरहुल: मुंडा जनजाति का मुख्य त्योहार

झारखंड के मुंडा जनजाति द्वारा मनाया जाने वाला सरहुल त्योहार वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए मनाया जाता है। यह त्योहार प्रकृति की पूजा और जीवन के नव-आरंभ का प्रतीक है। सरहुल का अर्थ है ‘सर’ यानी पेड़ और ‘हुल’ यानी धूल। इस त्योहार के दौरान, मुंडा जनजाति के लोग पेड़ों और प्रकृति के विभिन्न तत्वों की पूजा करते हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उनका जीवन और संस्कृति प्रकृति से गहराई से जुड़ा हुआ है।

सरहुल त्योहार के दौरान, मुंडा जनजाति के लोग अपने गांवों में सरना स्थल पर एकत्रित होते हैं, जो कि एक पवित्र स्थान होता है। यहां वे साल वृक्ष की पूजा करते हैं। साल वृक्ष को इस त्योहार में विशेष महत्व दिया जाता है क्योंकि इसे जीवन और पुनर्जन्म का प्रतीक माना जाता है। पूजा के दौरान, पुरोहित (पुजार) बरगद के पत्ते, चावल और फूल चढ़ाते हैं और गांव की समृद्धि और खुशहाली के लिए प्रार्थना करते हैं।

इस त्योहार के दौरान कई परंपराएँ निभाई जाती हैं। मुंडा जनजाति के लोग पारंपरिक वस्त्र पहनते हैं और पारंपरिक नृत्य एवं संगीत का आयोजन करते हैं। उनके नृत्य और गीतों में प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त किया जाता है और जीवन की खुशियों को साझा किया जाता है। लोग सामूहिक भोज का भी आयोजन करते हैं, जिसमें पारंपरिक व्यंजन परोसे जाते हैं।

सरहुल का त्योहार मुंडा जनजाति के लिए केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह उनके सांस्कृतिक धरोहर और सामाजिक एकता का भी प्रतीक है। इस त्योहार के माध्यम से मुंडा जनजाति अपनी परंपराओं को जीवित रखते हैं और आने वाली पीढ़ियों को अपनी संस्कृति से जोड़ते हैं। झारखंड की भूमि पर यह त्योहार न केवल मुंडा जनजाति के लिए, बल्कि पूरे क्षेत्र के सांस्कृतिक ताने-बाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

करम: संथाल जनजाति का प्रमुख पर्व

झारखंड की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर में करम पर्व का महत्वपूर्ण स्थान है। यह पर्व विशेष रूप से संथाल जनजाति द्वारा मनाया जाता है और फसल कटाई के समय इसके आयोजन की परंपरा रही है। करम पर्व संथाल जनजाति के कृषि जीवन और प्रकृति के प्रति उनकी गहरी निष्ठा को प्रतिबिंबित करता है।

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करम पर्व के दौरान करम देवता की पूजा की जाती है, जो संथाल जनजाति के मुख्य देवता माने जाते हैं। यह पर्व भाद्रपद माह की एकादशी के दिन मनाया जाता है। पूजा के दौरान, करम वृक्ष की शाखाओं को सजाकर गांव के मध्य में स्थापित किया जाता है। करम देवता की पूजा विशेष मंत्रों और विधानों के साथ की जाती है, जिससे यह पर्व धार्मिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण बनता है।

इस उत्सव के दौरान नृत्य, गाना और खेलों का आयोजन होता है, जो संथाल जनजाति की जीवंत संस्कृति को दर्शाता है। संथाल जनजाति के लोग पारंपरिक वेशभूषा में सज-धज कर करम नृत्य करते हैं। करम नृत्य में लोग हाथों में हाथ डालकर वृत्ताकार में घूमते हुए नाचते हैं, जो सामूहिकता और एकजुटता का प्रतीक है। करम गीतों में प्रकृति, कृषि और करम देवता की महिमा का गुणगान किया जाता है।

करम पर्व के दौरान विभिन्न खेलों का आयोजन भी होता है, जिसमें बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी भाग लेते हैं। इन खेलों से न केवल मनोरंजन होता है, बल्कि पारंपरिक खेलों की पहचान भी बनी रहती है। करम पर्व संथाल जनजाति के समाजिक और सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है और यह पर्व उन्हें अपनी जड़ों से जोड़े रखता है।

सोहराई: उरांव जनजाति का महत्वपूर्ण त्योहार

झारखंड की उरांव जनजाति में सोहराई त्योहार का विशेष महत्व है। यह पर्व मुख्य रूप से फसल कटाई के समय मनाया जाता है, और इसे उरांव जनजाति द्वारा बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। सोहराई एक धन्यवादी पर्व है, जिसमें फसल की समृद्धि के लिए देवताओं का धन्यवाद किया जाता है।

सोहराई त्योहार के दौरान मवेशियों की पूजा की जाती है। उरांव जनजाति के लोग मानते हैं कि मवेशी उनके कृषि कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, इसलिए उन्हें सम्मान देना आवश्यक है। त्योहार की शुरुआत मवेशियों को स्नान कराने और उन्हें सजाने से होती है। उन्हें रंग-बिरंगी पेंट से सजाया जाता है और उनके गले में फूलों की माला डाली जाती है।

इस पर्व के दौरान विशेष पकवान भी बनाए जाते हैं। चावल, दाल, और विभिन्न प्रकार की सब्जियों से तैयार किए गए व्यंजन इस पर्व का मुख्य आकर्षण होते हैं। उरांव जनजाति के लोग पारंपरिक ढोल और मांदर की धुन पर नृत्य करते हैं और गीत गाते हैं। यह समय सामुदायिक एकता और खुशहाली का प्रतीक है।

सोहराई त्योहार के माध्यम से उरांव जनजाति की सांस्कृतिक धरोहर और उनकी परंपराओं को समझा जा सकता है। यह पर्व न केवल फसल की समृद्धि का प्रतीक है बल्कि यह उनके सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को भी दर्शाता है। सोहराई, झारखंड की उरांव जनजाति के जीवन का अभिन्न हिस्सा है और उनकी सांस्कृतिक धरोहर को सजीव बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

त्यौहारों की सांस्कृतिक धरोहर

झारखंड की जनजातियों के त्योहार उनकी सांस्कृतिक धरोहर और परंपराओं का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। संथाल जनजाति, मुंडा जनजाति, और उरांव जनजाति द्वारा मनाए जाने वाले ये त्योहार न केवल उनकी सांस्कृतिक पहचान को जीवित रखते हैं, बल्कि समाज में एकता और सद्भाव की भावना को भी प्रबल करते हैं।

संथाल जनजाति का सबसे प्रमुख त्योहार सोहराई है, जो फसल कटाई के समय मनाया जाता है। इस त्योहार में पशुओं की पूजा की जाती है और घरों की दीवारों पर सुंदर चित्रकारी की जाती है। यह त्योहार संथाल जनजाति की कलात्मकता और प्रकृति के प्रति उनकी आदर भावना को दर्शाता है।

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मुंडा जनजाति का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार मागे परब है, जो साल के पहले महीने में मनाया जाता है। इस त्योहार में विशेष प्रकार के नृत्य और संगीत का आयोजन होता है, जो मुंडा जनजाति की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। मागे परब के दौरान लोग अपने पूर्वजों को याद करते हैं और उनके प्रति सम्मान प्रकट करते हैं, जिससे उनकी पारिवारिक और सामाजिक बंधनों को मजबूती मिलती है।

उरांव जनजाति का सरहुल त्योहार वसंत ऋतु में मनाया जाता है। इस त्योहार में सखुआ पेड़ की पूजा की जाती है, जो उरांव जनजाति के धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। सरहुल के दौरान लोग परंपरागत वेशभूषा में सजते हैं और विशेष प्रकार के नृत्य और गीत प्रस्तुत करते हैं। यह त्योहार उरांव जनजाति की प्रकृति और पर्यावरण के प्रति गहरी आस्था को दर्शाता है।

इन त्योहारों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ये त्योहार लोगों को एक साथ लाते हैं और सामूहिकता की भावना को प्रबल करते हैं। इसके अलावा, ये त्योहार नई पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने का महत्वपूर्ण माध्यम भी हैं। इस प्रकार, झारखंड की जनजातियों के त्योहार उनकी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

समारोह और अनुष्ठान

झारखंड की संथाल, मुंडा और उरांव जनजातियों के त्योहारों में विभिन्न समारोह और अनुष्ठानों का महत्वपूर्ण स्थान है। इन जनजातियों के धार्मिक अनुष्ठान, नृत्य, संगीत और पारंपरिक खेलों के माध्यम से उनकी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित किया जाता है।

उदाहरण के लिए, संथाल जनजाति का सबसे प्रमुख त्योहार ‘सोहराई’ है, जो फसल कटाई के समय मनाया जाता है। इस दौरान संथाल लोग अपने पशुओं की पूजा करते हैं और रंग-बिरंगे चित्रों से अपने घरों को सजाते हैं। पारंपरिक संथाली नृत्य और गीत इस त्योहार की विशेषता होते हैं, जिनमें सामूहिकता और आनंद का भाव स्पष्ट होता है।

मुंडा जनजाति का ‘सरहुल’ त्योहार वसंत ऋतु में मनाया जाता है। इस त्योहार में प्रकृति की पूजा की जाती है और गांव के प्रमुख पेड़ ‘साल’ की पूजा की जाती है। मुंडा लोग पारंपरिक वेशभूषा धारण कर नृत्य और संगीत के माध्यम से अपनी संस्कृति का प्रदर्शन करते हैं। सरहुल के दौरान सामूहिक भोज और पारंपरिक खेल भी आयोजित किए जाते हैं, जो सामाजिक एकता को बढ़ावा देते हैं।

उरांव जनजाति के ‘कारम’ त्योहार में कृषि और फसल की अच्छी उपज के लिए देवताओं की पूजा की जाती है। इस अवसर पर उरांव लोग पारंपरिक नृत्य करते हैं, जो ‘जदुर’ और ‘जदुवा’ के नाम से जाना जाता है। इनके नृत्यों में तालबद्ध संगीत और गीतों का विशेष महत्व होता है, जो उनके सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है।

इन जनजातियों के त्योहारों में न सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान और नृत्य शामिल होते हैं, बल्कि पारंपरिक खेलों का भी आयोजन होता है। जैसे कि ‘खो-खो’, ‘कबड्डी’ और ‘पिट्ठू’ जैसे खेलों में सभी आयु वर्ग के लोग भाग लेते हैं। इन खेलों के माध्यम से न सिर्फ मनोरंजन होता है, बल्कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का भी ध्यान रखा जाता है।

झारखंड की संथाल, मुंडा और उरांव जनजातियों के समारोह और अनुष्ठान उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। ये न केवल उनकी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखते हैं, बल्कि सामाजिक एकता और सामूहिकता को भी प्रोत्साहित करते हैं।

परंपरागत व्यंजन और खान-पान

झारखंड की संथाल, मुंडा और उरांव जनजातियों के प्रमुख त्योहारों में पारंपरिक व्यंजनों का विशेष महत्व होता है। इन जनजातियों के त्योहारों के दौरान बनने वाले अनेक प्रकार के पकवान न केवल स्वादिष्ट होते हैं, बल्कि संस्कृति और परंपरा का भी हिस्सा होते हैं।

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संथाल जनजाति के त्यौहारों में ‘हँड़िया’ एक प्रमुख पेय होता है। यह चावल से बनने वाली एक पारंपरिक शराब है, जिसे विशेष अवसरों पर तैयार किया जाता है। इसके अलावा, ‘पिठा’ नामक चावल और गुड़ से बने मीठे पकवान का भी महत्व है। संथाल जनजाति में पिठा का सेवन खासकर सरहुल और करमा त्योहारों के दौरान किया जाता है।

मुंडा जनजाति के खान-पान में ‘मड़ुआ रोटी’ और ‘चिल्का रोटी’ विशेष स्थान रखते हैं। मड़ुआ रोटी रागी के आटे से बनाई जाती है, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी होती है। चिल्का रोटी चावल के आटे से बनाई जाती है और इसे ‘गुड़’ के साथ खाया जाता है। ये व्यंजन न केवल पौष्टिक होते हैं, बल्कि मुंडा जनजाति की सांस्कृतिक धरोहर को भी दर्शाते हैं।

उरांव जनजाति के त्योहारों में ‘धुस्का’ और ‘अरसा’ जैसे पारंपरिक व्यंजनों का महत्व है। धुस्का चावल और उड़द की दाल से तैयार किया जाता है और इसे तले हुए स्नैक्स के रूप में परोसा जाता है। अरसा एक मीठा पकवान है, जिसे चावल के आटे और गुड़ से बनाया जाता है। इन व्यंजनों का सेवन विशेष रूप से ‘सरना’ और ‘खारवार’ त्योहारों में किया जाता है।

इन पारंपरिक व्यंजनों का सांस्कृतिक महत्व बहुत अधिक है। ये न केवल भोजन की विविधता को दर्शाते हैं, बल्कि इन जनजातियों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को भी प्रकट करते हैं। प्रत्येक पकवान की रेसिपी पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपी जाती है, जो इन त्योहारों की धार्मिक और सामाजिक महत्ता को और भी बढ़ाती है।

वर्तमान समय में त्योहारों का महत्व

आधुनिक युग में, झारखंड के संथाल, मुंडा और उरांव जनजातियों द्वारा मनाए जाने वाले प्रमुख आदिवासी त्योहारों का महत्व और प्रासंगिकता अत्यधिक है। ये त्योहार न केवल जनजातीय समुदायों की प्राचीन परंपराओं को जीवित रखते हैं, बल्कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को भी मजबूत करते हैं। आधुनिकता की दौड़ में भी, ये त्योहार उन मूल्यों और मान्यताओं को आगे बढ़ाते हैं जो इन जनजातियों की पहचान का हिस्सा हैं।

संथाल जनजाति के ‘सोहराय’ त्योहार से लेकर मुंडा जनजाति के ‘माड़ई’ और उरांव जनजाति के ‘सरहुल’ तक, ये उत्सव जनजातीय समुदायों के लिए न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखते हैं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। इन त्योहारों के दौरान, समुदाय के लोग एकत्रित होते हैं, पारंपरिक नृत्य और गीतों का आनंद लेते हैं, और अपने पूर्वजों को सम्मान देते हैं। यह सामूहिकता और सहयोग की भावना को बढ़ावा देता है, जो इन जनजातियों की प्रमुख विशेषता है।

आधुनिक समय में भी, इन त्योहारों ने अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखा है। ये उत्सव जनजातीय युवाओं को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने का काम करते हैं, जिससे वे अपनी परंपराओं और मान्यताओं को समझ सकें और उन्हें आगे बढ़ा सकें। इसके अलावा, ये त्योहार स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी समर्थन देते हैं, क्योंकि इस दौरान पारंपरिक वस्त्र, आभूषण और हस्तशिल्प की मांग बढ़ जाती है।

आज के वैश्वीकरण के दौर में, संथाल, मुंडा और उरांव जनजातियों के त्योहार उनके सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने का महत्वपूर्ण माध्यम बने हुए हैं। ये न केवल उनकी सांस्कृतिक पहचान को सुदृढ़ करते हैं, बल्कि बाहरी दुनिया के समक्ष उनकी अद्वितीयता और विविधता को भी प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार, झारखंड के आदिवासी त्योहार केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक एकता और सामंजस्य का प्रतीक हैं।

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